01-Aug-2018 12:36 AM
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दुनिया की वर्तमान 7.6 अरब आबादी (वर्ष 2017), संयुक्त राष्ट्र संघ (यूनाइटेड नेशन्स) के अनुसार वर्ष 2030 में बढ़कर 8.6 अरब, वर्ष 2050 में 9.8 अरब, और वर्ष 2100 में 11.2 अरब हो जायेगी। जनसंख्या में सर्वाधिक बढ़ोतरी अफ़्रीका व एशियाई देशों में हो रही हैं जिसके अनेक कारण हैं। विश्व बैंक के अनुसार पूरे दक्षिण एशिया में औसत जन्मदर प्रति महिला दो से तीन (2-3) बच्चे है। परन्तु भारत में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार अभी भी डेढ़ सौ ऐसे जिले हैं जहाँ प्रति महिला जन्मदर तीन से चार (3-4) बच्चे है (2017)। सर्वाधिक जन्मदर (औसतन चार (4) या अधिक बच्चे प्रति महिला) भारत के तेइस जिलों में हैं जिनमें उत्तर प्रदेश के ग्यारह जिले, बिहार के आठ जिले और राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के दो-दो जिले सम्मिलित हैं। उच्च जन्मदर के साथ-साथ इन जिलों में शिशु मृत्युदर भी सर्वाधिक है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार सामाजिक और साँस्कृतिक मूल्य, शिक्षा का अभाव एवं उचित सुविधाएं सुलभ न होना आदि यहाँ जनसंख्या नियंत्रण में बाधक हैं।
अनियंत्रित जनसंख्या का दूसरा पहलू इसके सामाजिक, प्राकृतिक एवं मानवीय दुष्प्रभाव हैं, जैसे असंतुलित शहरी विकास, प्रदूषण, गरीबी, भूख, कुपोषण, रोग इत्यादि। प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पड़ने से भारत समान देशों में भी नागरिकों को अक्सर शुद्ध जल, वायु आदि की कमी झेलनी पड़ती है। विश्व में सर्वत्र ऐसा पाया गया है कि जहाँ-जहाँ जनता या वर्ग विशेष बालविवाह, गरीबी, भुखमरी इत्यादि समस्याओं से जूझ रही है, वहाँ स्त्री सशक्तिकरण का एक परिणाम जनसंख्या में घटौती आना भी है। महिला सशक्तिकरण में शिक्षा की सदैव विशेष भूमिका रही है जो समाज के सभी वर्गों को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करती है। माता शिशु की प्रथम शिक्षक मानी जाती है। एक जागरूक और सक्षम नारी परिवार नियोजन के साथ-साथ बच्चों व समाज को उपयुक्त संस्कार प्रदान करती है। सशक्त नारी से सशक्त समाज बनता है। यद्यपि वित्तीय दृष्टि से आज भारत एशिया और अफ्रीका के बहुत से देशों से अधिक प्रगतिशील है परन्तु आज भी हमारे समाज में अक्सर लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को अधिक अधिकार एवं सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, विशेषकर जहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक मूल्य ऐसे हों जो लड़कियों के विकास में बाधक बनते हों। महिलाओं के "अशक्तिकरण" के बीज तो तभी पड़ जाते हैं जब कन्या "दान" किया जाता है, नव वधू को सौ पुत्रों की माता होने का आशीर्वाद दिया जाता है, एक भी पुत्री का नहीं। चार पुत्रों का पिता सीना तान कर चलता है, चार पुत्रियों की माता को घर में अपमान सहने पड़ सकते हैं। कन्या को शुरू से ही "पराया धन" घोषित कर दिया जाता है और उसी के अनुसार उस से व्यवहार किया जाता है। वंश पुत्र से चलता है, पुत्री से नहीं। बहुपत्नी प्रथा और तीन बार तलाक शब्द कहने मात्र से सम्बन्ध विच्छेद करने का विशेषाधिकार भी एक वर्ग में केवल पुरुषों को प्राप्त है। जनमत की गिनती ही सर्वोच्च और सर्वमान्य है, इसलिए अपनी संख्या बढ़ाने में लोगों को लाभ दिखता है।
इन परिस्थितियों में बदलाव लाने के लिये पुरुषों की भूमिका और जिम्मेदारी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी महिलाओं की। जनसंख्या नियंत्रण एवं स्त्री सशक्तिकरण में पुरुषों का योगदान बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता है। कहते हैं "साहित्य समाज का दर्पण है", वर्तमान में छोटे परदे के सीरियल और फिल्में भी आजकल के साहित्य में शामिल होंगीं (दुर्भाग्य है कि भारतीय समाज का छोटा सा वर्ग ही पुस्तकें और समाचार-पत्र पढ़ता है)। आज किसी भी भारतीय भाषा के सीरियल को ले लें, किसी न किसी रूप से नारियों और पुरुषों को एक दूसरे का शोषण करते दिखाया जाता है, नहीं तो कथानक आगे कैसे बढ़ेगा। यही सोशल मीडिया महिला सशक्तिकरण और जनसंख्या नियंत्रण संबंधी जागरूकता बढ़ाने के लिये एक अत्यंत प्रभावी यंत्र सिद्ध हो सकता है। पश्चिमी देशों में आम जनता में स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान और व्यवहार में बदलाव लाने के लिए स्मार्ट फ़ोन का सफल उपयोग हो रहा है। भारत में स्मार्ट फ़ोन का प्रचलन इतना बढ़ा है कि 2018 में 33.7 करोड़ लोग इसका उपयोग कर रहे हैं। एक अमेरिकन शोध संस्था के अनुसार विश्व में स्मार्ट फ़ोन उपभोक्ताओं की सर्वाधिक अनुमानित विकास दर (ण्त्ढ़ण्ड्ढद्मद्य ड्ढद्मद्यत्थ्र्ठ्ठद्यड्ढड्ड ढ़द्धदृध्र्द्यण् द्धठ्ठद्यड्ढ) भारत में है। कहना न होगा कि प्रत्येक वर्ग का भारतीय टेक्नोलॉजी आत्मसात करने से घबराता नहीं है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में टेक्नोलॉजी का किस प्रकार उपयोग किया जाये इसके सरकारी नीति के साथ-साथ सामाजिक, साँस्कृतिक एवं पारिवारिक सोच बदलनी होगी, विशेषकर समाज के उस वर्ग के लिए जहाँ जन्मदर भारत की औसत जन्मदर से दुगनी है व जिसके लिये महिलाएँ व पुरुष दोनों ही जिम्मेदार हैं। सत्तर व अस्सी के दशक में "हम दो हमारे दो" सुनकर बड़ी होती युवा पीढ़ी ने गर्भनिरोधक सुविधाओं का उपयोग किया। सरकार की इस पालिसी का सर्वाधिक असर पढ़े-लिखे युवाओं पर ही हुआ था जिनकी संतानें स्वयं अब इस विषय में जागरूक हैं। फिर भी ऐसे क्या कारण हैं कि पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों में परिवार नियोजन सम्बंधित नीतियाँ उच्च जनसंख्या वाले जिलों में असफल रही हैं, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में? केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल ही में वहाँ (उत्तर प्रदेश) जापानी इन्सेफेलाइटिस से शिशुओं की मृत्यु सम्बंधित कार्यवाही में पाया था कि उपयुक्त नीतियाँ चिकित्सा व स्वास्थ्य तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण भी सफल नहीं हो पा रही हैं।
स्त्री सशक्तिकरण जनसंख्या नियंत्रण की प्रथम कड़ी है। इस दृष्टि से इक्कीसवीं शताब्दी भारतीय नारी के लिये नई चुनौतियाँ एवं अनेकानेक संभावनाएँ उपस्थित करती हैं। समाज की प्रत्येक इकाई का निजी स्वार्थ को अनदेखा कर प्रदेश, देश एवं विश्व की भलाई और प्रगति के लिये शीघ्रातिशीघ्र प्रयत्न और सहयोग करना अत्यंत आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि भावी पीढ़ियों को हम पूरी तरह प्रदूषित, विकृत, संकुचित व नैसर्गिक सौंदर्यविहीन जन्मभूमि ही विरासत में दे पायें।
by
अनुपमा दीक्षित, ()