02-Jun-2017 03:38 AM
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शहर की चकाचौंध में कुछ खो-सा गया है
कि जेहन में गाँव का नक्शा रखा है
जहाँ दूर से ही दीख जाती हैं
छतों पर सूखती मिर्चें और बड़ियां
नीचे आँगन में सजती हैं
तुलसी और गुलाब की क्यारियां
खेत की पगडण्डी के इस ओर
केले के पत्ते हैं झूलते
तो दूसरी ओर अमराई और आम हैं महकते
वहीं थोड़ा आगे बूढ़ी नानी
सिगड़ी पर रोटी है पकाती
तो बेटी-नाती उसकी
पकौड़े है तलती
पेड़ की डाली से लटके
झूले में नन्ही है सोती
बहती हवा की धुन पर माँ
मीठी लोरी गुनगुनाती
पर अब यहाँ का
पूरा नक्शा ही बदल गया है
छतों पर कुकरमुत्तों की तरह
डिश और एंटीना फैले हैं
खेत और पगडण्डी को
पक्की सड़क ने खा लिया
पत्ते और अमराई सूख गए
शेफ़ तन्दूर में नान हैं पकाते
सिज़लर्स और मंचूरियन हैं बनाते
न लोरी न डाली न झूला ही रहा
कि अंतरजाल पर राइम्स और
एफएम है बज रहा
खेत, पगडण्डी, अमराई का
अर्थ हुआ बेमानी
ताऊ चाचा खो गए
खो गई है बूढ़ी नानी
सूरज अब ज़मी के पास आ गया है
यहां भी कंकरीट का जंगल बनने लगा है
गांव जब शहर से आश्ना होने लगा है
गांव का हर आदमी अजनबी होने लगा है
मेरा गाँव भी शहर बनने लगा है।
by
स्वर्ण ज्योति, ()