01-Jan-2018 04:17 PM
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एक
दूरियां तो मिट गईं तकनीकियों की डोर में बांध
किन्तु अपने आपसे क्या मिट सकी दूरी ज़रा भी
टूटते सम्बंध के सन्दर्भ के अवशेष चुनता
और कितने दिन भ्रमों में घिर रहेगा ओ प्रवासी
चित्र वे जिनके सपन आकर अँजा करते नयन में
कल तलक, वे बस दिवस की एक करवट के परे हैं
किन्तु उनके रंग कितने हो गए फीके न जाना
सोचता है वे अभी तक इन्द्रधनुषों से भरे हैं
टांकता जो फ़्रेम ईजिल पर वही कोरा रहा है
लील कर बैठी लगा अब रंग सारे तूलिका भी
जा चुके दिन की गली में है रहा उलझा अभी तक
द्वार भी अब छोड़ जिनको और आगे बढ़ गये हैं
मूल्य जिनकी पोटली बैठा हृदय से तू लगाये
वे पहुँच के हो परे गहराईयों में गड़ गये हैं
जिन सिरों को जोड़ता तू सांझ नित अपनी गंवाता
उन सिरों की परिणति है भूल की इक तालिका
दो
हो गईं धूमिल क्षितिज के पार की संभावनाएं
लुप्त तम में हो गईं छवियाँ सभी जो थीं उजासी
बीनता संबंध के बिखरे हुए अवशेष जब कि
जा चुकी है देर पहले इस डगर पर से निकासी
क्यों प्रवासी
ढूँढता सुर किसलिए तू पायलों के पनघटों पे
मन्नतों के ढूँढता धागे टंगे होंगे बटों पे
खेत में उड़ती हुई अठखेलियों से कोई बदरी
या कि हाथों के पड़ी हो छाप कोई चौखटों पे
झुक रही हैं आस्थाएं द्वार पर जा देवता के
बात ये लगने लगी हैं गल्प की इक कल्पना-सी
सुन प्रवासी
आज कल के शेष पुस्तक के सभी पन्ने फटे हैं
और गहराने लगे जो मेघ सोचा था छँटे हैं
आइना जो बिम्ब अपना हर घड़ी पर देखता था
चित्र उसमें दिख रहे जितने सभी वे अटपटे हैं
देखता है पीठ पीछे आतुरा नजरें बिछाए
छूटते पदचिह्न की इक रेख दिख जाये जरा-सी
क्यों प्रवासी
चाहता है सांझ गूंजे बोल से सारंगियों के
रंग बरसाते रहें मेले लगे नौचंदियों के
कर रखे रससिक्त मीठी-सी चुहल ब्रजधाम वाली
और हों जीवन सपने मोड़ के वयसंधियों के
एक लक्ष्मण रेख जिस पर है खड़ा लेकर अनिश्चय
इस तरफ राहें धुंआ-सी उस तरफ राहें कुहासी
ओ प्रवासी।
by
राकेश खंडेलवाल, (America)