01-Dec-2017 01:26 PM
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कविता एक उड़ान हैै। यह प्रसिद्ध पंक्तियां मेलबोर्न की साहित्य-संध्या में न जाने कितनी बार कही होंगी। इन पंक्तियों के साथ मैं कुँवर नारायण का क्या परिचय दूँ, खुद "कविता" का परिचय उनके ही शब्दों में दे दिया इतना हर्ष मुझे होता था। विद्यार्थी जीवन में "लहर" पत्रिका द्वारा आपकी कविताओं का रसास्वादन किया।
आपको 2005 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला जो हिंदी के लिये और कविता की विधा के लिये बहुत बड़ा सम्मान है, क्योंकि इस विधा में और वह भी हिन्दी भाषा को बहुत वर्षों के बाद यह पुरस्कार मिला। आपको पद्मभूषण के अलावा भी पुरस्कार तो कई मिले। प्रेमचन्द पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान, कबीर सम्मान कहाँ तक गिनाएं, पर आपकी कविता पुरस्कारों की मोहताज नहीं। इसे स्पष्ट करने के लिये पहले तो हम उस युग की बात करें जब कुछ आलोचक छंद-बद्ध कविता के अलावा किसी भी कविता को रबर छन्द कह कर मखौल उड़ाते थे और उसके अस्तित्व को ही नकारते थे। ऐसे आलोचकों का सामना करते हुये कुँवर जी धैर्यपूर्वक आगे बढ़े।
आपके शब्दों में कविता को "कोई हड़बड़ी नहीं/ कि वह इश्तहारों की तरह चिपके/ जुलूसों की तरह निकले/ नारों की तरह लगे/ और चुनावों की तरह जीते/।" इस दृष्टि को साथ लेकर "चक्रव्यूह" और "तार-सप्तक" से लेकर "इन दिनों" आदि कविता के क्षेत्र में पहल की। नई कविता आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर होकर इसके विकास में खाद-पानी डालते हुये साथ ही साथ आपने खंडकाव्य, लघुकथा (जैसे कि "आकारों के आसपास"), समीक्षा ("आज और आज से पहलेे" तथा "मेरे साक्षात्कार") लिखी, अनुवाद किये, संपादन भी किया, रंगमंच और सिनेमा सभी क्षेत्र में लिखा और साथ ही अँगरेज़ी और उर्दू में भी लेखनी चलाई। फिर आश्चर्य नहीं कि आपकी कविताओं के अनुवाद भी काफी हुये। मानो आप के भीतर अनेक कलाकारों का जमघट है और वे सब आपकी ही आत्मा के आदेश पर चलने को कटिबद्ध हैं। तभी तो नई कविता के कटु आलोचक भी दबी जबान से या अपवाद मान कर आपकी प्रतिभा को स्वीकार कर लेते हैं। क्योंकि आपकी कविता में काव्य-शैली की बात करें या कल्पना की उड़ान की या फिर भीतर छुपे मनोवैज्ञानिक सत्य की? "शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,/ शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,/ कहाँ वे परितोष,/ जिन्हें सपनों में पाया जाता है?"
क्या यह स्वाभाविक नहीं कि कोई कवि प्रयोगवादी कविता लिखे तो संप्रेषणीयता में कमी आ जाय? पर नहीं, आपकी प्रयोगवादी कविता पाठक को अचरज भरी दुनिया में ले जाती है और बड़े सहज स्वाभाविक रूप से। दुनिया को बदलने के बारे में वे लिखते हैं "जानता हूँ कि मैं/ दुनिया को बदल नहीं सकता/ न लड़ कर उससे जीत सकता हूँ/ हाँ लड़ते लड़ते शहीद हो सकता हूँ/।" "बिल्कुल मामूली जिंदगी जीते हुये भी/ लोग चुपचाप शहीद होते देखे गये हैं।" मिथक और इतिहास के परिधान में भी आपने वर्तमान की समस्या को ही उजागर किया है जैसे कि "आत्मजयी" और "वजश्रृवा के बहाने"। 1992 में अयोध्या की घटना से आहत होकर आपने लिखा "अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं/ योद्धाओं की लंका है/" "मानस" तुम्हारा "चरित" नहीं/ चुनाव का डंका है/" "सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ/ किसी पुराण, किसी धर्मग्रंथ में/ सकुशल सपत्नीक/ अबके जंगल वो जंगल नहीं / जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!/"
इस तरह कविता के विश्व में मानो भेष बदल-बदल कर आप पाठकों को टीस भी देते हैं, उनका मनोरंजन भी करते हैं। आपकी कविता में व्यक्ति और समाज की वह व्याख्या छिपी है जो इसके पीछे छुपे एक ऐसे व्यक्तित्व को उजागर करती है जो जीवन की विविधता को भली-भाँति समझ लेता है। आपने जीवन के इंद्रधनुष और "उदासी के रंग" सब का बारीकी से निरीक्षण करते हुये कहा "कभी-कभी धोखा होता/ उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त/ कि कहीं वे/ किन्ही उदासियों से ही/ छीने हुये रंग तो नहीं?" कविता में बौद्धिकता होते हुये भी आप जन-जन के कवि हैं क्योंकि आपकी कविता इंसान की संवेदना को छूती है : "चमकीले फूलों से भरा/ तारों का लबालब कटोरा/ किसने शिशु-पलकों पर उलट दिया/ अभी-अभी?" प्रश्नात्मक शैली आपकी कविता की विशिष्टता है।
सृजन के क्षणों में काव्य की देवी "सोम का कटोरा" लिये आती है तो आप के लिये कभी कामिनी तो कभी "चमकती नागिनी" का रूप धरती है और भीतर का कवि आश्चर्य से सोचता है "रूप- सागर कब किसी की चाह में मैले हुए?/ ये सुवासित केश मेरी बाँह पर फैले हुए।"
आशावादी दृष्टि ने आपके जीवन को भरपूर बनाया है। 90 वर्ष के जीवन में आपने क्या-क्या झेला इससे अधिक आपने चोट को किस अंदाज में झेला इसके दर्शन आपकी कविताओं में होते हैं।
“मैं हँस दिया, रूठा नहीं :/ उस चोट के अन्दाज़ में /जो मिल गया, अपवाद था, /उस तिलमिलाती जाग में,/ जो मिट गया, उन्माद था।"
by
हरिहर झा, (ऑस्ट्रेलिया)