01-Feb-2016 12:00 AM
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पहली जनवरी। नये वर्ष के स्वागत का दिन, पूरे विश्व में उत्सव का दिन। लगता है संसार एक हो गया। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, सबों का भेद ख़त्म हो गया। संघर्षों में युद्ध विराम आ गया, दुश्मन भी आपस में मिठाई बाँट रहे हैं। फायरवर्क की गगनचुम्बी बहुरंगी लपटों से रात का गहरा अन्धकार दूर हो रहा है, मानो महादेश करीब आ गये हैं। यदि यह पहली जनवरी ठहर जाये तो विश्व का कल्याण हो जाये, पर नियति को मंजूर नहीं। समय का कालचक्र चलता रहता है, प्रकृति का यह शा?ात नियम है। इन्हीं विचारों में खोया था कि पत्नी ने पिछले तीन-चार दिनों में आये पत्रों का संग्रह मेरे सामने रख दिया। चूँकि मैं कार्यवश शहर से बाहर था, पोस्ट ऑफिस से आये लिफाफों का पुलिन्दा भारी हो गया था। वर्षों से ऑस्ट्रेलिया में रहते हुए हम लोग भी यहाँ की संस्कृति के शिकार हो गए हैं। हम एक-दूसरे के नाम से आये पत्रों को नहीं खोलते। शायद इसे भी प्राईवेसी का एक हिस्सा मानते हैं। मैंने कुछ लिफाफों को ही खोला था, उनमें नये वर्ष के ग्रीटिंग कार्ड थे। दो-चार लिफाफों में हस्तलिखित सन्देश थे जो नजदीकी मित्रों ने भेजा था और उन्होंने अपने नये संकल्पों की चर्चा की थी ताकि मेरा उत्साह बढ़े। मैं थोड़ा आलसी किस्म का व्यक्ति हूँ। अभी लिफाफों को खोलना बाकी ही था कि पत्नी बोल पड़ी, "कब तक लिफाफे खोलते रहोगे? क्या उनमें मनीआर्डर भरा है जो इतनी सावधानी दिखा रहे हो? बारबेक्यू का समय हो चुका है, बच्चे तैयार हैं।' अभी मैं पत्नी के व्यंग्य से उभरा ही था कि एक मित्र सपरिवार आ पहुँचे। भाभी जी भी कम नहीं थी, उन्होंने आते ही कह डाला, "अरे, आप तो अभी तक तैयार नहीं हैं; आज तो उत्साह दिखाईये ताकि पूरा साल मंगलमय हो।' जब तक पहली जनवरी का नशा समाप्त हुआ संध्या का अँधेरा आने लगा था। घर पहुँचकर पत्नी और बच्चों ने टेलीविज़न के सामने मोर्चा सँभाल लिया। चैनलों पर रंगीन कार्यक्रम आ रहे थे। मैं चुपके से अपने स्टडी कक्ष में पहुँच गया। सभी लिफाफों के सन्देश पढ़ने के बाद मैंने भी अपनी कलम को कृतार्थ किया और कुछ लिखने का प्रयत्न किया। मेरी कलम ने मुझे ललकारा, "इस महँगी कलम से यदि कुछ लिखना चाहते हो तो मेरी भी इज्जत रखो। तुम्हारे वाक्यों में युग की पहचान हो, जीवन का संबल हो और एक नया संकल्प हो। मैं अवाक् था, मेरी कलम आज वाचाल हो गयी। कलम ने आज पहली बार मुझसे कुछ माँगा है, मैं तो सदा उसे अपने लिये इस्तेमाल करता रहा हूँ। मैंने कई बार कुछ लिखा और फाड़ डाला। मैं साहित्य और भावना का जो संगम खोजता था, वह कोसों दूर था। विशिष्टता की सीमा नहीं होती, साहित्य में सफलता का कोई मापदण्ड नहीं होता। वह तो पाठक तय करते हैं। मेरे अनुभव में साहित्य और भावना का संगम कविता के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से होता है और इसे मैं एक सशक्त माध्यम मानता हूँ। अनेक प्रयासों के बाद कुछ लिख पाया जो नीचे प्रस्तुत है : आज हमें ज्ञान है ब्राहृाण्ड का अनुभव है अंतरिक्ष भ्रमण का सामथ्र्य है दूरस्थ तारों के गर्भ-विश्लेषण का, किन्तु मुश्किल है झाँकना सामने बैठे मनुष्य के दिमाग में जिसके भीतर उपजता है आतंकवाद का विष पलता है हत्या, प्रपंच और धोखाधड़ी का बीज जटिल है रचना मानव मस्तिष्क की इसका भेद पाना है ज़रूरी सक्षम है तुम्हारी बुद्धि हमें प्रतीक्षा है अनुसन्धान की, देता हूँ इसी संकल्प की दुहाई नये वर्ष की बधाई। मैंने भी संकल्प लिया है सांस्कृतिक संगम का बहुरंगी दीप जलाने का इसी की रोशनी में भविष्य की राह खोजने का यही है उभरते विश्व की सच्चाई जिसमें शामिल है मेलबोर्न की परछाई, एक बार पुनः नये वर्ष की बधाई। दूसरे दिन मैंने यह सन्देश भेजते हुए लिखा, "आशा है आप इसे दो-चार मिनट का समय अवश्य देंगे। यदि मेरे विचार अपाच्य लगे, तो क्षमा प्रार्थी हूँ। कवियों की इतनी धृष्टता तो जग जाहिर है। जनवरी महीना ऑस्ट्रेलिया का ग्रीष्मकाल है जो प्रायः अवकाश और पर्यटन का समय होता है। मुझे भी श्रीमति जी की इच्छा पूरी करनी थी, हम लोग दो सप्ताह के लिये न्यूजीलैंड की सैर पर निकल पड़े। यह छोटा देश अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये विश्व विख्यात है। समुद्र, पहाड़, ज्वालामुखी, संरक्षित वन्य-प्रदेश और नीले आकाश का संगम अति मनोरम लगता है। आधुनिक विकास के साथ-साथ प्राचीन "माओरी' सभ्यता का संरक्षण दर्शनीय है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड पश्चिमी संस्कृति के प्रतीक रहे हैं किन्तु अब इनका रूप बदल रहा है। घर लौटते ही मुझे एक निमन्त्रण पत्र मिला, "26 जनवरी को भारतीय गणतन्त्र दिवस समारोह में कृपया पधारें और उपस्थित जनता को सम्बोधित कर हमारा सम्मान बढ़ायें।' पत्र की भाषा पर आश्चर्य हुआ। मैं कब से इस सम्मान के काबिल हो गया? मैं कई बार ऐसे समारोहों में शामिल हो चुका था पर किसी ने मंच पर बुलाने की गलती नहीं की। मंच तो राजनीति के खिलाड़ियों के लिये सुरक्षित होता है। कहीं किसी ने मजाक तो नहीं किया? थोड़ी देर में टेलीफोन की घंटी बजी, "मैं ही इस वर्ष गणतन्त्र दिवस उत्सव का आयोजन कर रहा हूँ, आपको निमन्त्रण पत्र मिल गया होगा। सोचा, व्यक्तिगत रूप से संपर्क कर लूँ। आपकी प्रतीक्षा रहेगी। मैंने सहमते हुए कहा, "क्या इस वर्ष मंच बहुत बड़ा है जिसे भरने के लिये आदमी खोज रहे हैं या फिर देशभक्ति की याद आ गयी है? अगला चुनाव कुछ ही
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डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव, (India)