01-Oct-2016 12:00 AM
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दवा कंपनियों से मिलकर डॉक्टर तरह-तरह की बीमारियों से डराते रहते हैं। स्वाइन फ्लू का डर भी इसी योजना का एक भाग था। अमरीका में भी स्वाइन फ्लू से ज्यादा लोग साधारण फ्लू से हर वर्ष मरते हैं। भारत में भी एड्स से ज्यादा लोग दस्त से मरते हैं।
कुछ वर्ष पहले डेनमार्क के एक दैनिक "इन्फोर्मेशन" ने सूचना दी कि संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक विभाग एसएजीई (स्ट्रेटेजिक एडवाइज़री ग्रुप ऑफ़ एक्सपट्र्स) के छः सदस्यों ने कार्यक्रम की मुख्य निर्देशिका को सलाह दी कि अमुक कम्पनी से, अमुक देश के लिए, अमुक संख्या में एच-1 एन-1 के टीके खरीदे जाएँ। इन छः सदस्यों के टीके बनाने वाली कंपनियों से अंदरूनी समझौते थे और स्वार्थ थे। इस कमेटी के एक सदस्य जुहानी एस्कोला को ग्लेक्सो स्मिथ क्लाइन कम्पनी से एक रिसर्च प्रोग्राम के नाम 6.3 मिलियन यूरो (कोई 50 करोड़ रुपये) मिले। पता नहीं, इनकी कोई रिसर्च करने वाली प्रयोगशाला भी है या नहीं। ऐसे मामलों में कागजों में भी प्रयोगशाला हो सकती है। यूरोपीय स्वास्थ्य परिषद् के मुखिया वुल्फगैंग बोडार्ग ने इस पर नाराज़गी ज़ाहिर की और कहा कि दवा कंपनियों के साथ मिलकर स्वाइन फ्लू की महामारी की झूठी अफ़वाह फैलाई गई थी।
एसएजीई की इस हरक़त पर केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने नाराज़गी ज़ाहिर की और जाँच की माँग की। यदि डेनिश अखबार ने इसका उद्घाटन नहीं किया होता और वहाँ से देर से ही सही, खबर उठकर भारत के अख़बारों में नहीं छपती तो क्या मंत्री जी नाराज़गी ज़ाहिर करते? यह वक्तव्य क्या मात्र झेंप मिटाने के लिए है या वास्तविक नाराज़गी है? क्या हममें अपना विवेक नहीं है? या सबसे बड़े लोकतंत्र का नेतृत्व मूर्ख या स्वार्थी हाथों में है?
तो साहब, इस सन्दर्भ से आपने क्या समझा? हमारे हिसाब से तो यह डर या भय का व्यवसाय है। भय ही मनुष्य की सभी प्रवृत्तियों का संचालक है। तंत्र का व्यवसाय करने वाले चतुर लोगों ने सबसे पहले इस धंधे को शुरु किया। अज्ञात शक्तियों का भय दिखाकर भोले लोगों को अपने पीछे लगा लिया।
धर्म के नाम पर धंधा चलाने वालों ने नरक का भय दिखाया और स्वयं के पास स्वर्ग का टिकट देने की एजेंसी बताई। पोप-लीला इसी को कहा गया है। अन्य धर्म भी इससे अछूते नहीं हैं। नरक से डरकर लोग उनकी शरण में जाने लगे और धंधा चल निकला।
डॉक्टर के पास जाइए तो वह यही कहेगा- साहब, आप बहुत सही समय से आ गए। यदि थोड़ी सी भी देर कर देते तो मरीज़ तो बस ऊपर गया ही समझो। अब डॉक्टर चाहे जितनी फीस ले और चाहे जितनी दवाएँ लिखे। आदमी खर्चा करता है और यह भी शुक्र मनाता है कि चलो जान तो बची।
किसी मास्टर जी के पास जाइए और कहिये- गुरुजी, बच्चा अमुक विषय में थोड़ा कमज़ोर है। ज़रा देख लीजिये। वे यही कहेंगे- क्या ज़रा सा। यह तो पक्का ही फेल होने वाला है। थोड़ी बहुत सी कोचिंग से काम नहीं चलेगा। डबल ट्यूशन पढाना पड़ेगा तब कहीं जाकर पास होगा। पोस्ट आफिस से सेवा-निवृत्त एक सज्जन पोस्ट-आफिस के सामने बैठने लगे। वहाँ बहुत से ऐसे मज़दूर लोग आते जिन्हें अपने घर पैसा भेजना होता मगर उन्हें मनीआर्डर फार्म भरना नहीं आता था। वे उनका मनीआर्डर फार्म भरने के लिए आज से कोई पच्चीस बरस पहले पचास पैसे लिया करते थे। जब कोई मज़दूर शंका करता - साब, ज़ल्दी ही पहुँच जायेगा ना। तो वे कहते भई, जल्दी और सुरक्षित पहुँचने वाला करवाना है तो एक रुपया लगेगा। बेचारा देरी और मनीआर्डर खो जाने के भय से एक रुपये वाला मनीआर्डर भरवाता।
अखबारों में विज्ञापन देखते ही होंगे आप क्योंकि कोई भी अखबार खबरें भले ही छोड़ दे पर विज्ञापन नहीं छोड़ सकता। विज्ञापन कुछ इस तरह के होते हैं। मिलें- शादी से पहले और शादी के बाद। (वैसे यदि किसी को शादी नहीं भी करनी हो तो भी वे सलाह देने के लिए तैयार हैं।) हीन भावना को भगाने के लिए तरह-तरह के इन्द्रियवर्धक यंत्रों के ये विज्ञापन भी "उस" भय का ही दोहन करते हैं। गोरा बनाने वाली क्रीम का विज्ञापन डराता है कि आपका रंग गोरा नहीं है तो आपकी शादी नहीं होगी। गोरे रंग के अभाव में आपकी अच्छी नौकरी भी नहीं लगेगी। बदन की दुर्गन्ध भगाने वाले स्प्रे का विज्ञापन कहता है कि यदि बदन में से दुर्गन्ध आयेगी तो हो सकता है कि आपको प्लेन से बाहर फेंक दिया जाये। यदि कोई बच्ची बालों में तेल लगाएगी तो स्कूल में बच्चे उसे "चिपकू-चिपकू" कह कर चिढायेंगे। यदि आपका बच्चा एक विशेष प्रकार का शक्तिवर्धक चूर्ण दूध में मिला कर नहीं पिएगा तो वह जीवन की दौड़ में पिछड़ जायेगा और क्रिकेट में कप नहीं ला पायेगा।
बाल घने, काले और चमकदार नहीं हुए, त्वचा चमकीली नहीं हुई, बालों में रूसी हुई, दाँत चमकीले नहीं हुए तो क्या पता आपका पति आपको छोड़ कर कहीं और तांक-झाँक करने लग जाये। डर कर बेचारी पत्नी को सारे ज़रूरी खर्चे कम करके ये चीजें खरीदनी पड़ती हैं। एक कम्पनी विशेष की शूटिंग पहने बिना कोई पूर्ण पुरुष नहीं बन सकता। पता नहीं भगवान इसी कम्पनी की शूटिंग पहनते थे क्या क्योंकि उन्हें भी पूर्ण पुरुष कहा जाता है।
बुश आठ साल तक अमरीकी जनता को डराते रहे कि अगर वे नहीं हुए तो ओसामा आ जायेगा। हो सकता है कि ओबामा भी आठ साल तक इसी की कमाई खाते रहें। कश्मीर के नेता यही जताते रहते हैं कि यदि कोई विशेष पैकेज नहीं दिया गया तो आतंकवाद बढ़ जायेगा। पाकिस्तान के नेता कश्मीर के नाम पर जनता को डराते रहते हैं। अब तो अमरीका को भी डराते रहते हैं कि अगर हमें पैसा और हथियार नहीं दिए तो आतंकवादी सारे इलाके पर कब्ज़ा कर लेंगे। हम ही उनसे लड़ सकते हैं। क्या करे अमरीका, उसकी भी नस दबी हुई है।
दवा कंपनियों से मिलकर डॉक्टर तरह-तरह की बीमारियों से डराते रहते हैं। स्वाइन फ्लू का डर भी इसी योजना का एक भाग था। अमरीका में भी स्वाइन फ्लू से ज्यादा लोग साधारण फ्लू से हर वर्ष मरते हैं। भारत में भी एड्स से ज्यादा लोग दस्त से मरते हैं।
स्वाइन फ्लू से लोगों को इतना डरा दिया गया है कि अरबों के तो मास्क ही बिक गए होंगे। और अब तो इसके पीछे की साजिश का पर्दाफ़ाश हो ही गया। हमारे यहाँ की साधारण जड़ी-बूटियों से स्वाइन फ्लू क्या, सब प्रकार के फ्लू का इलाज़ हो सकता है पर किसी ने उस संभावना को तलाशा ही नहीं क्योंकि उससे न तो किसी डॉक्टर और न ही किसी नेता या दलाल को फायदा हो सकता था।
एड्स लम्पटता से फैलने वाली एक बीमारी है। अरे भाई, इस बात का प्रचार करो कि लोग शादी से पहले इस बीमारी की जाँच कराएँ। यदि यह बीमारी हो तो उससे शादी न करें। शादी के बाद संबंधों में ईमानदारी बरतें। फिर कैसे होगी एड्स। उस रास्ते पर न चल कर निरोध में इसका इलाज़ ढूँढ़ रहे हैं।
शराब पीना किसी के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक नहीं है पर जब-तब यह बात फैलाई जाती है कि दिन में एक पेग ले लेने से हृदयाघात का खतरा इतना प्रतिशत कम हो जाता है।
या तो अपने आप को जगद्गुरु मानने वाला यह देश इतना मूर्ख है या फिर इस देश का नेतृत्व इतना कमज़ोर है कि वह न तो तथाकथित विकसित देशों की चालों को समझता है और यदि समझ भी जाये तो रोक नहीं पाता। यदि इनमें से कोई सी भी बात नहीं है तो फिर कहीं न कहीं भ्रष्टाचार है।
by
रमेश जोशी, (USA)