01-Feb-2019 02:21 PM
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प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी पर मुझे याद आता है कि आज महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी का जन्मदिन है। उसके साथ ही न जाने कितनी और स्मृतियाँ उभर आती हैं। दारागंज, इलाहाबाद में बिताये हुए बचपन के वे सुहाने दिन, जिनकी उन दिनों कोई महत्ता आभासित नहीं होती थी, एक एक कर चलचित्र की तरह आँखों के सामने आने लगते हैं। उन दिनों मैं कोई पांच वर्ष की थी और अपनी एक पड़ोसन मित्र के साथ पास के ही एक प्राथमिक स्कूल (मोती महल) में जाया करती थी।
स्कूल घर से लगभग एक मील दूर था। मुख्य सड़क से न जाकर हम लोग गली के अंदर से स्कूल जाते थे। घर और स्कूल से लगभग आधे रास्ते पर, उसी गली में निराला जी का घर था। हम लोग प्रतिदिन निराला जी को देखते थे। वह केवल एक सफ़ेद तहमद पहने हुए दिखते थे। शीतकाल में ऊपर बदन पर एक सफ़ेद छोटा-सा कुर्ता जैसा भी कुछ पहनते थे, जिसमें कुछ जेबें लगी होती थीं। हम दोनों दूर से ही उन्हें देख कर कहते थे "वह देखो निराला जी!" फिर थोड़ा पास से "निराला जी, नमस्ते" कह कर डर कर भाग जाते थे। वैसे तो उनके चेहरे पर हमेशा ही एक शांत गंभीर मुद्रा रहती थी, किन्तु हम बच्चे लोग संभवतः उनके भीमकाय शरीर को देख कर और उनकी बढ़ी हुयी दाढ़ी को देख कर डरते थे। अक्सर उनके शरीर के ऊपर के भाग में कोई वस्त्र नहीं होता था। उत्तर प्रदेश में, कम से कम उन दिनों, यह कोई अनोखी बात नहीं थी। पुरुष लोग अक्सर बिना कुर्ते या कमीज के घूमते थे।
हम लोगों पर निराला जी की विशेष कृपा दृष्टि थी। वह हमारे यहां अक्सर आते थे। उन दिनों मेरे पिताजी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स थे। प्रतिदिन ही हमारे घर में बहुत से शिक्षकों की बैठक होती थी। बैठक में एक तख़्त होता था जो द्वार के पास ही रखा होता था। आज भी हमारे उस घर के बाहरी कमरे में वह तख़्त उसी स्थान पर रखा है। निराला जी प्रायः हमारे घर आकर हमारी बैठक में उसी तख़्त पर चुपचाप बैठ जाते थे। वह बस बैठ कर मेरे पिताजी को और अन्य शिक्षकों के देखते रहते थे और किसी से कुछ बोलते नहीं थे। अन्य लोग भी उन्हें बस आदरपूर्वक नमस्ते करते थे और कुछ बोलते नहीं थे। सभी के मन में उनके प्रति सम्मान था और यह भावना थी कि निराला जी की विचार तन्द्रा भंग नहीं करनी है।
घर की स्त्रियां और लड़कियां सामान्यतः बाहर की बैठक में नहीं जाती थीं। पिताजी घर के नौकर से ही यह सन्देश भेज देते थे कि निराला जी आये हैं, चाय भेजो। माँ, मैं और घर की अन्य महिलाएं परदे को थोड़ा-सा हटा कर उस महामानव के दर्शन कर लेते थे। मैंने निराला जी को सहस्त्रों बार देखा होगा - कभी स्कूल जाते हुए गली में, कभी अपने घर की बैठक में। उनकी वही छवि अभी भी मेरे और मेरी सहेली के मन में अंकित है और हम लोग जब मिलते हैं तो उनकी बातें करते हैं। तीन वर्ष मोती महल स्कूल जाने के बाद मुझे एक अन्य स्कूल सेवा सदन भेज दिया गया। यह स्कूल मेरे घर से लगभग चार मील दूर था। मैं और मेरी छोटी बहन ममता, घर से लगभग एक मील दूर दारागंज चौराहे के बस अड्डे तक पैदल चलते थे। फिर वहां से बस लेकर स्कूल जाते थे। दारागंज चौराहे तक जाते-जाते, प्रायः निराला जी के दर्शन हो जाया करते थे। उस समय हम लोगों को क्या आभास था कि हम प्रतिदिन इतने महान छायावादी कवि का साक्षात्कार करते हैं।
निराला जी अक्सर स्वयं से कुछ बुदबुदाते रहते थे, जैसे अपने आप से ही कविता पाठ कर रहे हों, या उनके मन में काव्य धारा प्रवाहित हो रही हो। मैंने या मेरे घर के किसी भी व्यक्ति ने निराला जी को कभी किसी से वार्तालाप करते हुए न देखा न सुना। आज यह सोच कर अजीब लगता है कि छायावाद का वह महान स्तम्भ, जो इतनी बहुमूल्य रचनाएं कर चुका था, इतना शब्दहीन होकर दारागंज की गलियों में जाने किस खोज में घूमता था। उस समय मुझे क्या पता था कि एक दिन यही सारे दृश्य सुहाने स्वप्न बनकर मेरी आँखों में आएंगे। सभी दारागंज वासियों को निराला जी से परिवार सदस्य के समान ही स्नेह था। बहुत से लोग उनकी रचनाओं और काव्यात्मक प्रतिभा से अवगत थे और हम सभी के मन में उनके लिए अत्यधिक सम्मान था। वैसे तो निराला जी को हिंदी जगत में सभी लोग जानते हैं, किन्तु इलाहाबाद के दारागंज में वह उन दिनों भी बहुत लोकप्रिय और अत्यधिक सम्मानित थे। जो लोग विशेष पढ़े लिखे नहीं थे या जिन्हें हिंदी कविता में रुचि नहीं थी, ऐसे लोग भी निराला जी को पहचानते थे। सभी को पता था कि निराला जी कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है और देवी सरस्वती के वरद पुत्र हैं।
भारत की स्वतंत्रता को अभी पांच-छह वर्ष ही हुए थे। भारतीय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुयी थी। जवाहरलाल नेहरू जी हर वर्ष ही इलाहाबाद आया करते थे जो उनकी पैतृक भूमि थी। इलाहाबाद में अक्सर उनकी सार्वजनिक सभाएं आयोजित होती थी, जिनमें हज़ारों की भीड़ होती थी। पिताजी ने माँ को और हम लड़कियों को कभी भी भीड़भाड़ में जाने की अनुमति नहीं दी थी। इसलिए मैं कभी भी नेहरू जी की किसी सार्वजनिक सभा में नहीं जा सकी। सुनते थे कि नेहरू जी की जन सभाओं में निराला जी भी जाते थे और नेहरू जी उनका सार्वजनिक सम्मान करते थे। यह सुन्दर दृश्य देखने का सौभाग्य मुझे कभी नहीं मिल सका।
निराला जी के निजी जीवन के विषय में तरह-तरह की धारणाएं फैली हुईं थीं। सुनते थे कि उन्हें आर्थिक समस्याएं थीं। उनके मन में एक व्यथा थी, एक पीड़ा थी जो उनकी कविताओं में झलकती है। जैसे :
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही।
निराला जी दारागंज में अपने एक मित्र सिंह साहब के घर पर रहते थे। वैसे सुनते थे कि उनके पुत्र झांसी में रहते हैं। अपने जीवन की सांध्यवेला में उनके मन का एकाकीपन भी उनकी कविताओं में झलकता है। उनके इस महान एकाकी गीत की कुछ पंक्तियों के साथ, मैं अपनी यह विनीत श्रद्धांजलि और स्मृति लेख समाप्त करती हूँ।
मैं अकेला!
देखता हूँ
आ रही
मेरे दिवस की सांध्यवेला।
पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे
चाल मेरी
मंद होती जा रही
हट रहा मेला।
मैं अकेला!
by
शरद तिवारी , ()