01-Dec-2016 12:00 AM
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लखनऊ एक्सप्रेशन द्वारा 18, 19 तथा 20 नवम्बर को लखनऊ शहर में आयोजित लिटरेचर फैस्टिवल साहित्यिक संपदाओं, विभूतियों के समागम का मेला था। इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में हिन्दी-उर्दू, अंग्रेजी जुबां के साहित्य से जुड़े साहित्यकारों, कलाकारों, नाट्यकर्मी, लेखकों के इस जमावड़े में साहित्य की कितनी ही विधाएं, कितने ही रूपों में अलग-अलग मंच पर प्रस्तुत होती रहीं। तीन दिनों में समानान्तर तीन मंचों पर लगभग पचास से ऊपर सभाएँ संचालित हुईं और लखनऊ के साहित्य प्रेमियों को बहुत कुछ सुनने, देखने को मिला।
उत्तरप्रदेश पर्यटन की सहभागिता के साथ आयोजित इस साहित्यिक उत्सव का अहम् पहलू यह था कि इस बार तीनों जुबान के देशभर के फिल्मकारों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों में मूलतः उन लोगों को शामिल किया गया था, जिनकी जड़ें उत्तरप्रदेश से जुड़ी हुई थीं। छोटे शहरों के बड़े कलाकारों में जावेद अख्तर, मुजफ्फर अली, पियूष मिश्रा, जूही चतुर्वेदी, सुरेश रैना, अतुल तिवारी, अनुराग कश्यप, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, नीदरलैंड से पधारी प्रो. पुष्पिता अवस्थी तथा भारतवंशी भगवान् प्रसाद, लखनऊ शहर के तमाम लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी तथा दूसरें शहरों से आये पंकज कपूर, शोभना नारायण, वरुण ग्रोवर, मानव कौल, रजत कपूर, महात्मा गांधी के परपोते तुषार गाँधी सहित कलाकारों को कहीं लेखक के रूप में तो किसी को अभिनेता के रूप में, किसी को निर्देशक के रूप में सुनाने का मौक़ा मिला। कवि सम्मलेन, मुशायरे के दौरान युवा मंच से बहुत-सी आवाजें अनेक विषयों पर मुखर हुईं। अनेक पुस्तकों के बड़े रोचक लोकार्पण हुए और उन रोचक चर्चाएँ हुईं।
आयोजन की नज़र से देखा जाये तो इतना बड़ा जमावड़ा कोई आसान काम नहीं। लखनऊ एक्सप्रेशंस एवं लखनऊ लिटरेचर फेस्टिवल की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती कनक रेखा चौहान तथा श्री जयंत कृष्णा ने इस फेस्टिवल को हरेक साल नये पायदानों पर पहुँचाने की पूरी कोशिश की है और निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आज फेस्टिवल उस मुकाम पर पहुंचा है, जहां इस आयोजन की तुलना आमतौर से स्थापित अन्य फेस्टिवल से की जा सकती है। ऐसा करने में बहुत-सी खामियों पर चर्चा को भी हमें स्वीकारना पड़ेगा।
आधुनिक चकाचौंध से भरे सम्पूर्ण आयोजन के दौरान हिन्दी के ऊपर उर्दू और अंग्रेजी का हावी रहना, साहित्य और कला के ऊपर हॉलीवुड के ग्लैमर का हावी होना फेस्टिवल की मजबूरी है या आम पाठक दर्शक की प्राथमिकता में वरीयता का दबाब है, इस पर मंथन आवश्यक है। बड़ी समस्या जो उभरकर आ रही है वह यह कि बढ़ते हुए कम्प्यूटरीकरण में इन आयोजनों हम श्रोता खोते जा रहे हैं। लेखकों, कलाकारों और आयोजकों में उत्साह है, लेकिन श्रोताओं के नाम पर खाली कुर्सियाँ चुनौती बन गयीं हैं। फेसबुक पर चार हजार से चालीस हजार लाइक बटोरने वाले लेखक-शायर अपने नाम से चार सौ दर्शक नहीं जुटा पाते। वो काम भी आयोजकों को ही करना पड़ता है। दर्शकों-पाठकों में जो हैं, उनमें बड़ी संख्या उन लोगों की है जो या तो किसी न किसी स्तर पर मंच से जुड़े हैं या मंच से जुड़ने के इच्छुक हैं। स्थानीय साहित्यिक मंचों का अलग-थलग रहना भी चिंतनीय है। लेखक आयोजकों के मेहमान बनकर तो आते हैं, श्रोताओं-दर्शकों के मेजबान नहीं बन पाते।
उल्लेखनीय है कि श्रोताओं-दर्शकों की सबसे अधिक संख्या उन आयोजनों में है, जो उस कार्यक्रम में निजी तौर पर जुड़े हैं। उनके लेखक व्यक्तिगत तौर से अपने पाठकों से जुड़े हैं अथवा फिल्मी हस्तियों का कार्यक्रम है। बड़े-बड़े आयोजन श्रोताओं और दर्शकों की इस उदासीनता की बलि चढ़ जाते हैं। फेसबुक, ब्लॉग और ऐसी सैकड़ों आधुनिक तकनीकी सुविधाओं में उलझे साहित्य कला प्रेमियों को इन मंचों से जोड़ना चुनौती है। इस दिशा में कारगर प्रयास करने होंगे। इस बार स्कूल कॉलेज के छात्रों को लाने के कई प्रयास हुए।
विशुद्ध दर्शक और श्रोता चाहे वे बमुश्किल बीस प्रतिशत ही होते हैं, इन आयोजनों की प्रतीक्षा करते हैं। उनके लिए थाली में बहुत कुछ परोसा गया। थाली तो खाली हो गयी, लेकिन भूख अब भी बाक़ी है, अगले वर्ष के इंतज़ार में। यही कहेंगे भूखों को खाना दिया जाने का आयोजन पूरा हो हुआ है, लेकिन भूख कैसे जगायी जाए, इस पर मशक्कत बाक़ी है। विशुद्ध दर्शक श्रोता होते हुए भी समानांतर दो मंचों पर चल रहे कार्यक्रमों में पूरे तो फिर भी नहीं देख पाते, लेकिन तुषार गांधी, भारतवंशी बनाम भारतवासी, लखनऊ का आकाश-वाणी में बहुत कुछ ऐसा सुनने को मिला, जो हमें अपने आप से जोड़ता है, जिस काल युग में हम नहीं थे, उस को समझ सके। सुनना हमेशा ही लाभकारी होता है, ये बात फेस्टिवल में शामिल होकर ही समझ आती है।
by
डॉ. मधु चतुर्वेदी , (INDIA)