01-Jan-2018 03:13 PM
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इस दुनिया में, विशेषरूप से पुराने देशों में आस्था और परंपरा के नाम पर तत्त्वज्ञान को इतने आवरणों और मौखिक व लिखित गर्द-ओ गुबार ने इस कदर ढँक लिया है कि उनके पीछे के सच को, और यदि है तो, थोड़ी बहुत तत्कालीन वैज्ञानिकता को ढूँढ़ पाना असंभव-सा है।
इसीलिए परंपरा को परम अर्थात परमपिता परमात्मा से भी बढ़कर माना जाता है। यह बात परंपरा शब्द का विच्छेद करके समझा जा सकता है- परम्अपराउपरंपरा, परम से भी परे जाकर उसे घेर सकने वाली शक्ति, परंपरा। परम् एक है, निरपेक्ष और निष्पक्ष है, अपने नियमों में किसी कार्य-कारण संबंध से बँधा है, तक्र्य और शोधनीय है, सच है या सच होने को तत्पर है।
आस्थाएँ किसी सीमित अनुभव पर आधारित होती हैं या किसी तात्कालिक उद्देश्य के लिए निर्मित की जाती हैं। आस्था व्यक्ति को अपनी शक्ति, ध्यान, प्रयत्न व संसाधनों को समेटने तथा एकाग्र और अनुशासित होकर अध्यवसाय करने के लिए प्रेरित करती हैं और यह एकनिष्ठ आस्था कभी-कभी जादू जैसा चमत्कार भी कर देती है। लेकिन जब आस्था में निरंतर विवेक, ज्ञान, जिज्ञासा और तर्कपूर्ण संवाद का अभाव हो जाता है तो उस आस्था को अंध-विश्वास, कट्टरता, अज्ञान औ उग्रता बनते देर नहीं लगती। ऐसी आस्था में मनुष्य को दैवीय, अलौकिक और श्रेष्ठता के भ्रम में डालकर अनुचित कामों के लिए भी प्रेरित किया जा सकता है। उसे एक शिकारी कुत्ता, एक मानव बम भी बनाया जा सकता है। यह आस्था किसी भी धर्म, पार्टी या व्यक्ति के लिए भी निर्मित की जा सकती है। आस्था का लक्ष्य जितना छोटे होता है आस्था उतनी की सीमित, एकांगी और तर्क-संवाद विरोधी होती है।
जब आस्थाएँ किसी स्वार्थ या षड्यंत्र के तहत निर्मित की जाती हैं तो वे बहुत खतरनाक हो सकती हैं और उनके परिणाम सारी दुनिया को भुगतने पड़ सकते हैं जैसे कि जातीय या नस्लीय श्रेष्ठता की अवधारणा, धर्म, जाति, नस्ल के आधार पर घृणा का अतार्किक प्रचार। आज के समय में दुनिया की बहुत-सी समस्याओं का कारण ऐसी स्वार्थवश फैलाई गई धारणाएँ हैं जो कालांतर में आस्था का रूप भी ले सकती हैं।
चूँकि आस्था का आधार प्रायः व्यक्तिगत होता है इसलिए उसे कट्टरता बनते देर नहीं लगती। तर्क पर आधारित न होने के कारण वह सरलता से अज्ञान से जुड़ सकती है। इसीलिए चतुर और आस्था का अपने स्वार्थ के लिए दुरुपयोग करने वाले हर बात में परंपरा की दुहाई देते हैं और बिना कोई कारण बताए अपने स्वार्थ के लिए आवश्यक अंधविश्वास या अनुयायियों की मूर्खता को चालू रखना चाहते हैं। श्रीलंका में भारत मूल के विद्वान और आचार्य कावूर ने अपने समय में चमत्कार दिखाकर लोगों में अपने हित के लिए अंधश्रद्धा फ़ैलाने वाले तथाकथित बाबाओं को खुली चुनौती दी थी लेकिन किसी ने उसे स्वीकार नहीं किया। ऐसे श्रद्धालु या अनुयायी अन्धश्रद्धा के विरुद्ध जागृति फ़ैलाने वालों की हत्या तक कर देते हैं और अंधश्रद्धा से ग्रसित लोगों और अंधश्रद्धा से लाभान्वित होने वाले घटकों के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। उन्हें उसमें हत्या के अपराध में न्याय मिलने और अपराधी को दंड देने जैसी सामान्य संवेदनात्मक प्रतिक्रिया भी नहीं होती। वे अपनी शक्ति उस हत्या का औचित्य सिद्ध करने में लगा देते हैं। यह दुगुनी चिंता की बात है।
कोई भी उत्सव अपने परिवेश, जीवन शैली, जीविकोपार्जन के तरीके और देश-काल से संबंधित होता है। जिस क्षेत्र और काल विशेष में उसकी शुरुआत होती है वे ही समय और स्थान यह तय करते हैं कि वह उत्सव कब, कैसे और किन उपादानों से मनेगा? जब किसी उत्सव को किसी आस्था, परंपरा और मूल तरीके से अतार्किक रूप से जोड़ दिया जाता है तो वह भी अपनी उपयोगिता और आनंद खोकर एक शुष्क कर्मकांड बन जाता है।
क्या हम अपनी आस्थाओं और उत्सवों के बारे में तार्किक रूप से विचार करना चाहेंगे? क्या उन्हें वास्तव में आनंद, सामूहिकता, सरसता और मानसिक विकास का अवसर बनाना या उन्हें अंधविश्वास, रूढ़ता और विभेद से जोड़कर झगड़े का बहाना बनाना चाहते हैं? समय-समय पर अपनी आस्थाओं, उत्सवों और परम्पराओं को संवाद, तर्क और वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसने से वे हमारे लिए अधिक उपयोगी हो सकते हैं। उनकी तार्किक और वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए हमें डरना नहीं चाहिए कि कहीं ऐसा करने से हमारी संस्कृति, अस्मिता और पहचान तो खतरे में नहीं पड़ जाएगी?
इन विषयों पर विचार करते समय हमारे विचार के दायरे में सभी धर्म और समाजों के त्यौहार, प्रतीक, रूपक, प्राचीन ग्रन्थ, देवता, ईश्वर आदि सब आ जाएँगे। यह साहस दिखाए बिना इन क्षेत्रों में फैली हुई कुरीतियाँ, अंधविश्वास ख़त्म नहीं होंगे और जीवन सहज नहीं होगा। किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के समूह के निजी स्वार्थ की बात और है अन्यथा दुनिया में सभी समाजों में समय-समय पर ऐसे प्रयत्न, प्रयोग, विचार और सुधार हुए हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो नए-नए धर्म और नए-नए विचार कहाँ से आते? फिर तो किसी क्षेत्र में कभी एक बार कायम हो चुकी सामाजिक, आर्थिक, व्यावहारिक व्यवस्था बदलती ही नहीं। लेकिन देशों और दुनिया में परिवर्तन होते रहे हैं। इसका यही अर्थ है कि अंतिम कुछ नहीं है। इस सृष्टि के हित के लिए, बेहतर की तलाश के लिए निरंतर संवाद, विचार, चिन्तन, प्रयोग और परिवर्तन होते रहने चाहिए।
आइए, आस्था और उत्सव की निरंतर सार्थकता के लिए पुनर्विचार का साहस जुटाएँ।
by
रमेश जोशी, (USA)