01-Apr-2016 12:00 AM
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प्रकृति ने विधाता को प्रणाम किया, "पिता, यह किस साज में सजाया मुझे? यह विन्यास, यह परतों में गूँथा संगठन, यह सुर, छन्द, लय और ध्वनि! विविधता तथा वैचित्र्य का मनोहारी सौन्दर्य; पर साथ ही कण-कण पर, बिखराव का सतत दबाव, प्रत्येक पल बिखरने के संकट की उपस्थिति का तनाव! यह कैसा विधान है कि वृद्धि के लिए तो अनुकूल परिवेश का प्रयोजन होता है, पर विकास के लिए प्रतिकूलता के साथ जूझना होता है? प्रतिकूलता क्रम-विकास का उद्दीपन है। प्रतिकूल परिस्थितियों में अनुकूलन की चुनौती को स्वीकार करने से ही विकास की सम्भावनाएँ उभड़ती हैं। मुझे नियमों के दृढ आवर्त से सजाया गया है, पर साथ-साथ इत्तिफाक और संयोग से होने वाले अनिश्चित तथा अनियमित दुर्याेगों का साथ भी विहित है। अनियम और नियम का मोज़ाइक (थ्र्दृद्मठ्ठत्ड़) बनाया है मुझे। पिता, तुम्हारी कृति को सहजता से धारण कर पाने का आशीष दो मुझे।'
विधाता मुस्कुराए, "कल्याणीया, मेरे आशीष ग्रहण करो। तुम्हारे नैसर्गिक सौन्दर्य और सम्भावनाओं तथा असीम सर्जन क्षमता का अभिनन्दन करता हूँ। विभोर किया है तुमने मुझे। तुम्हारे जन्म में सक्रिय और नियोजित भूमिका का कोई दावा मैं नहीं कर सकता। मैं तो अभी सृष्टि-कर्म के लिए चिन्तन और साधना की प्रस्तुति ही कर रहा था कि मेरे प्रभा-मण्डल से ज्योति के निर्गत होने की प्रक्रिया के परिणाम में तुम उभड़ आर्इं। सौर-मण्डल में सूर्य से तुम्हारी विशिष्ठ दूरी के संयोग के कारण तुम पानी को तरल रूप में धारण कर पाई हो; इस संयोग के परिणाम स्वरूप ही जीवन की जय-यात्रा प्रारम्भ हो पाई है। तुम्हारे पितृत्व से विभूषित होने पर मुझे आनन्द और गौरव का बोध हो रहा है। संगठन और बिखराव, नियम और अनियम तथा आकस्मिकता और अनिश्चितता ने तुम्हें रहस्य और आकर्षण से विभूषित किया है। तुममें अनन्त सम्भावनावों का आ·ाासन सन्निहित है; तुम्हारा सौन्दर्य अपरूप है। प्राणी जगत को निरन्तर प्रतिकूलता में भी जीवित रहने को विवश करने की क्षमता है तुममें। मैं प्राणी-जगत को चार प्रवृतियों के साज से अलंकृत करता हूँ, ताकि तुम्हारा प्रयोजन सिद्ध हो; ये चार प्रवृतियाँ हैं --- भूख, काम, नींद और भय। बिखराव (कदद्यद्धदृद्रन्र्) के निरन्तर दबाव के बीच विन्यास बनाए रखने की अनिवार्यता से उत्पन्न तनाव की व्यवस्था में ये प्रवृतियाँ तुम्हारी सहायता करेंगी। भूख प्राणियों को विवश किया करेगी कि वह अपना संगठन तथा विन्यास बनाए रखने तथा वृद्धि और विकास जारी रखने के लिए परिवेश से आवश्यक संसाधन प्राप्त करने को मजबूर हुआ करेगा। काम प्राणियों को प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति को कायम करने के लिए विवश करता रहेगा। नींद के जरिए जीर्णता पर नियन्त्रण मिला करेगा तथा भय परिवेशीय संकटों से आत्म-रक्षा की प्रेरणा जुटाएगा।
ई·ार ने हमें इसलिए नहीं बनाया कि उन्हें पता था कि हम क्या करेंगे, उन्होंने यह पता करने के लिए हमें बनाया कि हम क्या कर सकते हैं। ---- डोमैन नाइट
विधाता ने प्रकृति के यज्ञ में हस्तक्षेप किया। उन्होंने मनुष्य में मन की प्रतिष्ठा की। मन को भावनाओं से गढ़ा। मस्तिष्क में युक्ति स्थापित की। मन और मस्तिष्क में चेतना का संचार किया। चार प्रवृत्तियों के अलावे छ: अतिरिक्त साजों--- लोभ, रोग, मोह, क्रोध, मद और मात्सर्य-- से सज्जित किया। तब से आदमी प्यार करने लग गया और नफरत भी। मन आदमी को सपनों से भरा करता है और मस्तिष्क यथार्थ-बोध तथा विवेक से। द्वन्द्व उसको परिभाषित करने लग गया। ई·ार ने प्रयोगशाला आयोजित की।
आदमी अकेला ऐसा प्राणी बना जो प्रकृति को परिकल्पनानुसार तथा नियन्त्रित रूप में परिवर्तित करता है। उसे इस समझ (ध्र्त्द्मड्डदृथ्र्) की अनिवार्य आवश्यकता है कि वह जीव-मण्डल के अन्य अवयवों से स्वतन्त्र नहीं है। उसका अस्तित्व पारितन्त्र के अन्य अवयवों के साथ गूँथा हुआ है। उसके लिए परिवेशीय-विवेक (कड़दृथ्दृढ़त्ड़ठ्ठथ् ड़दृदद्मड़त्ड्ढदड़ड्ढ) की उपेक्षा करना सर्वनाशी होना होगा।
विन्यास-बिखराव, अनुकूलता-प्रतिकूलता, नियम-अनियम, आकस्मिकता तथा युक्ति-भावना के समीकरणों से संचालित जीवन की सम्भावनाओं का अन्वेषण करने के प्रयोगों में विधाता वैज्ञानिक की निष्ठा से संलग्न हैं। जीवन के अनन्त, असीम तथा जटिल रहस्यों के प्रति विधाता के कौतूहल, जिज्ञासा और करुणा का अन्त नहीं है; जीवन की सम्भावनाओं को उद्घाटित करने के लिए विधाता ने जीव-मण्डल को प्रयोगशाला के रूप में आयोजित किया है। अनुकूलता और प्रतिकूलता के बीच जीवन का वर्ण-पट्ट कैसे कैसे रंग बिखेरता है तथा इस जय-यात्रा का तिलक कब लगता है, इन प्रश्नों के प्रति आग्रहशीलता है विधाता में। हर आदमी की जीवन-यात्रा में अपना ही अनोखापन होता है। यह अनोखापन विधाता के प्रयोगों का उपकरण है। वह अलग-अलग प्रयोगों के लिए अलग-अलग व्यक्तियों का चुनाव करता है। जटिल और कठिन प्रयोगों के लिए उनको नियुक्त करता है, जिनके ऊपर उसे भरोसा होता है। उनके जीवन में कठिनाइयों और जटिलताओं का वरदान देकर इन्हें वह बाकी सबों से अलग करके नितान्त अपना बना लेता है तथा जीवन का अविराम अभिषेक उनके माध्यम से करता रहता है। विधाता वैज्ञानिक की भाँति निर्विकार होता है। किसी विशेष परिणति के प्रति आग्रह उसमें नहीं होता। जीवन के आनन्द और यन्त्रणा, इसकी विडम्बनाओं तथा इसके असीम विस्तार से साक्षात्कार करने का सौभाग्य सबको समान रूप से नहीं मिल पाता। ई·ार की करुणा की उपलब्धि सब को नहीं हो पाने का कारण भी यही है।
विधाता ने आदमी में ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र-- तीनों की सत्ता प्रतिष्ठित की। तब से वह अवलोकन करता चला आ रहा है कि आदमी सृष्टि के साथ क्या कर सकता है।
"आदमी की ज़िन्दगी में कुछ है, जिसकी तहकीकात की जानी चाहिए। इसके मुकाबिले में टिकने लायक कोई दूसरी चीज नहीं। यह सही है कि जब हम इसकी यन्त्रणा और आनन्द की उत्सुक भट्टी में झाँकते हैं, तो अपने चेहरे को शीशे के नकाब से ढंक नहीं पाते और न ही गन्धक के विषैले धुएँ से दिमाग़ को परेशान होने से बचा सकते; हमारी कल्पना-शक्ति भयावनी परछाइयों और भग्न स्वप्नों से गँदली होने से बच नहीं पातीं। ऐसी आश्चर्यजनक व्याधियाँ हैं जिन्हें जानने के लिए उनसे होकर गुजरना अनिवार्य हुआ करता है। और फिर भी, बड़ा-सा तोहफा मिलता है! दुनिया किस कदर अचम्भे से भरी हो जाती है। जुनून के कठोर उत्सुकतापूर्ण तर्क तथा मेधा के भावुकतापूर्ण रंगीन जीवन के रूबरू होना; अवलोकन करना कि वे कहाँ मिलते और कहाँ अलग होते हैं; किस बिन्दु पर उनमें इत्तिफाक था और कहाँ नाइत्तिफाकी --- ऐसे अवलोकन में आनन्द है। इसकी कीमत कुछ भी हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। - ऑस्कर वाइल्ड
by
गंगानंद झा, ()