01-Jun-2016 12:00 AM
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कबीर ऊपरी दिखावे की बहुत आलोचना करते हैं। कुछ लोग माला तो फेरते है लेकिन उनका ध्यान कहीं और होता है। जाति-प्रथा पर चोट करते हुए वे कहते हैं कि केवल ऊँचे कुल में जन्म लेने से कुछ नहीं होता है जब तक काम भी ऊँचे न हों -
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय
सौरन कल¶ा सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय।
पुरोहितों और मुल्लाओं ने कबीर की खूब आलोचना की पर इसका उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि राम-रहीम, के¶ाव-करीम एक हैं, उनमें कोई अंतर नहीं है। जाति से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति के कर्म हैं।
कबीर की दृष्टि में महिलाओं की भी स्थिति अछूती नहीं रही। कबीर मुसलमानों से कहते हैं कि यदि ख़तना करने से हिन्दू मुसलमान बन जाता है तो उनका आधा समाज (महिलाएँ) तो हिन्दू ही रहती हैं। यदि जनेऊ पहनने से कोई ब्रााहृण बन जाता है तो महिलाओं का क्या होता है? उन्हें तो जनेऊ पहनने का अधिकार नहीं है। कबीर लोगों से धर्म और साम्प्रदायिकता से ऊपर उठ कर सोचने को कहते हैं। वे कहते हैं कि केवल किताबी ज्ञान काफी नहीं है। वे कहते हैं कि न तो वे मुसलमान हैं और न हिन्दू। वे न तो व्रत रखते हैं और न मुहर्रम मनाते हैं, न तो नमाज़ पढ़ते हैं और न पूजा करते हैं। वे निराकार ई·ार को सलाम करते हैं जो उनके ह्मदय में निवास करता है।
कबीर परिश्रम द्वारा जीविका कमाने पर बहुत ज़ोर देते थे। उन्होंने आजीवन जुलाहे का काम किया। वे ई·ार से केवल इतना माँगते हैं कि उससे उनका और उनके परिवार के पेट भर जाये और अगर कोई आगंतुक साधु उनके दरवाजे पर आ जाये तो वे उसे भी खिला सकें।
वे यह भी कहते हैं कि यदि आव¶यकता से अधिक मिल जाये तो उसे बाढ़ के पानी की तरह दोनों हाथों से दान देकर उलीचिये। इस प्रकार वे कहते हैं कि अपनी आव¶यकता पूरी हो जाने पर ¶ोष धन अपने समाज के लिए व्यय किया जाना चाहिए। यह एक नए समाज की सोच दिखाता है। कबीर समाज में ग़रीब और कमज़ोर लोगों का पक्ष लेते हैं और जीवन में संघर्ष करने के लिए उनकी प्र¶ांसा करते हैं। उनके अनुसार अध्यात्मिक आव¶यकताओं से पहले भोजन ज़रूरी है। वे "भूखे भजन न होय गोपाला' में वि·ाास करते हैं। उन्होंने व्यक्ति का व्यवहार कैसा होना चाहिए और उसे समाज के लिए क्या करना चाहिए, इसका अच्छा विवरण दिया।
समाज में सब लोग एक साथ प्रेमपूर्वक रहेंगे और एक दूसरे का भला चाहेंगे। कोई अन्य व्यक्ति की बुराई करने के बजाय अपनी बुराइयों और कमियों का वि¶लेषण करेगा और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करेगा। इसी प्रकार बुराई का बदला भलाई से दिया जायेगा-
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिर¶ाूल।
कबीर के समाज-सुधार भविष्य के कई समाज-सुधार आंदोलनों के पूर्ववर्ती थे। उदाहरण के लिए, स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना में मूर्ति पूजा का बहिष्कार किया और निराकार ब्राहृ की उपासना का प्रचलन किया। महात्मा गाँधी ने हिन्दू और मुसलमानों का एक साथ लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किया।
कबीर के समय से भारतीय समाज काफी बदल चुका है परन्तु आज भी धार्मिक और साम्प्रदायिक गुटों में बँटा हुआ है। दे¶ा में अलगाव की प्रवृत्तियों में कमी होने के स्थान पर वृद्धि हुई है। कई अतिवादी दल धर्म के नाम पर दे¶ा में आतंक फैला रहे हैं। दे¶ा में न केवल मूर्ति पूजा में वृद्धि हुई है बल्कि धार्मिक कर्मकांडों और कट्टरपन का महत्व अधिक बढ़ा है। यदि लोग कबीर के बताये हुए व्यक्तिगत आचरण के नियमों का पालन करें तो न केवल भारतीय समाज बल्कि सम्पूर्ण वि·ा का मानव समाज ¶ाांतिमय व सुखी समाज होगा।
by
डॉ. दिनेश श्रीवास्तव, ()