01-Jan-2018 02:09 PM
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प्रवासी शब्द हृदय में कई तरह के भाव जगाता है। इसका एक संदर्भ तो शायद वहाँ से शुरू होगा, जब हमारे दादाजी गाँव छोड़कर तहसील आए और जब पिताजी ने शहर की ओर कदम बढ़ाये। और इसके आगे अगली पीढ़ी ने समुंदर के पार जाने की परवाज ली। वैसे मेरे लिए तो प्रवास की शुरुआत तब हो गयी थी जब अपना शहर छोड़ा था। उसके बाद तो बस सीमाएं बढ़ती गयी। शहर से प्रान्त, प्रान्त से दूसरा प्रान्त और फिर दूसरा देश।
बात कुछ 13-14 साल पुरानी है जब मैं मुंबई में एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी के मुंबई ऑफिस के लिए इंटरव्यू दे रहा था और मुझसे पूछा गया कि भारत से बाहर काम करने के बारे में क्या ख्याल है? मैंने कहा अभी तक सोचा नहीं है, तो प्रश्न आया कि क्यों?
मेरा जवाब था कि माता-पिता, परिवार के आसपास रहना चाहता हूँ ताकि जरूरत पड़ने पर तुरंत पहुँच सकूं। कहाँ से हो तुम? अगला प्रश्न था। जी मध्य प्रदेश! तो कैसे पहुंचोगे मुंबई से तुरंत? मैं बोला रात की ट्रैन पकड़कर सुबह इंदौर। तो दुबई कितना दूर है, रात की फ्लाइट लो सुबह इंदौर! वे मुस्कुराने लगे और बोले, सोचो मैं भी जाकर देखता हूँ नए प्रोजेक्ट में तुम्हारे लायक कोई पोजीशन है क्या?
यह थी शुरुआत "प्रवास" की। अपने अब तक के "प्रवास" का अनुभव बहुत अंतर्दृष्टि जगाने वाला है। इसलिए मैं जब भी पीछे मुड़कर देखता हूँ तो यह नहीं सोचता कि "क्या खोया, क्या पाया" बल्कि हमेशा यह खयाल आता है कि क्या "खोजा" और क्या "पाया"। प्रवास के आरंभ की उपरोक्त्त घटना में क्या खोजा? परिप्रेक्ष्य! क्या पाया "नयी दुनिया"।
पिताजी बचपन में कहा करते थे कि तुम्हें मेरे कंधों पर बैठ कर जो मैं नहीं देख सकता वह देखना है। मेरा प्रवास उनकी यह सोच और "वसुधैव कुटुंबकम" वाली परवरिश को मूर्त रूप देने की जद्दोजहद है।
जद्दोजहद इसलिए कि इस सोच ने बहुत बड़ा केनवास तो दिया पर उस केनवास पर अपने रंगों से प्रभाव दिखाने का प्रयास अब तक जारी है।
जद्दोजहद इसलिए भी कि अपना अपना देश, अपने लोग - की लकीर खींचना मुश्किल लगता है। वसुधैव कुटुंबकम कहना एक बात है पर महसूस करना एक अलग अनुभव है। जब यह सोचने में आए कि पहले बिहार के बाढ़ग्रस्त लोगों के बारे में सोचूं या किसी और दूसरे देश के शरणार्थियों के बारे में, तब ये समझ में आता है कि "वसुधैव कुटुंबकम्" मंत्र कितना बड़ा है और उसको निभाना कितना कठिन।
पिताजी के कंधों पर बैठ कर देखना है पर नजर कितनी दूर तक ले जानी है या ले जाई जा सकती है इस बात को परिभाषित करना कितनी बड़ी चुनौती है। प्रवास के अनुभव से उठती है एक टीस भी, कि जैसी ढांचागत सुविधाएँ विकसित देशों में हैं वो सुविधाएँ हमारे देश में क्यों नहीं। कई बार ये भी सोचने में आता है कि जहाँ हम अधिकारों के लिए इतने जागरूक है वहीं अपने कर्तव्यों को क्यों नजरअंदाज किये रहते हैं। इस तरह के कई सवाल जहाँ मन को विचलित कर देते हैं वहीं विश्व भर में भारतवंशियों के बढ़ते हुए प्रभाव क्षेत्र को देख कर फूली हुई छाती शर्ट के बटन भी तोड़ती है। गंभीर विचारों की श्रृंखला में बटन तोडू कमर्शियल ब्रेक के बाद "प्रवास" के अनुभवों के दूसरे पहलू की बात करना चाहता हूँ। प्रवास के अनुभवों में अपने भारतवर्ष से बाहर की नयी दुनिया देखने और जीने का रोमांच भी शामिल है। पिछले कुछ वर्षों में विश्व के कई देशों में यात्रा का सुअवसर प्राप्त हुआ। यात्राओं के दौरान इन देशों की भाषा, संस्कृति के बारे में जानने-समझने की कोशिश की।
यह नहीं जान पाया कि स्पेन के "ऊनो" "देस", "त्रेस" हमारे "एक", "दो", "तीन" से इतने मिलते-जुलते क्यों हैं, लेकिन ये जरूर जान पाया की पूरब से लेकर पश्चिम तक मानव मूल्य और रोजमर्रा की दुश्ववरियाँ एक समान हैं। चाहे मैं जापानीज से मिलूं या इतालियन से, अमेरिकन से गुफ्तुगू करूं या थाई से - माँ सबके लिए माँ है और दो कमरे का फ्लैट ख़रीदना सबके लिए एक चुनौती है।
प्यार व्यक्त करने के तरीके, पूरब और पश्चिम में अलग हो सकते हैं, लेकिन वो जो आँखों से झलकता है उसकी कोई भाषा नहीं है, वो हर जगह प्यार है।
सुबह 7:05 की गाड़ी छूटने का दबाव, चाहे वो मुंबई की लोकल ट्रैन हो, योकोहामा की बुलेट ट्रैन हो या लंदन की ट्यूब हर जगह बराबर है। मेरे लिए प्रवास का अनुभव एक बड़े परिवार वे जुड़ने के समान है जिसमें "खोजना" और पाना एक निरंतर प्रक्रिया है।
मेरे लिए प्रवास का अनुभव एक बड़े परिवार वे जुड़ने के समान है जिसमें खोजना और पाना एक निरंतर प्रक्रिया है। जैसे-जैसे हम किसी बड़े परिवाार से जुड़ने के बाद अपने आपके बारे में और परिवार के बारे में जानते जाते हैं उसी तरह प्रवास की इस प्रक्रिया में जीवन में कई अनुभव होते रहे हैं। हर अनुभव ने स्वयं के बारे में, हमारी भारतीय संस्कृति के बारे और प्रवास के दौरान संपर्क में आये देशों और वहां के निवासियों के बारे नयी समझ दी है। कई बार ये पाया है कि जैसा हम सोचते थे वैसा वहाँ कुछ नहीं है और कई बार ये खोजा है कि इंसानियत अलग-अलग रूप में सारे विश्व में फैली है। इसी तरह खोजना और पाना बदस्तूर जारी है।
by
विवेक सक्सेना, ()